Tuesday, May 20, 2008

आवाजों का मसीहा

मैं जानता हूँ तुम मुझसे क्या चाहते हो
मौन सहमति
पर
क्या तुम सुन नही पाते आवाजें यादों के उन चीथडो की
जो लटके रहतीं हैं मेरे दीवारों पर
किसी पुराने फटे कोट की तरह
क्या भूले हो तुम कभी अपने घर का रास्ता
आवाजों के जंगल में
क्या कभी किसी आवाज़ ने कैद किया है तुम्हारी परछाई को

मैं जानता हूँ तुम मुझसे क्या चाहते हो
पर
क्या तुम सुन नही पाते आवाजों के आर्तनाद को
चीखती रहती हैं जो मेरी आँखों में उस छटपटाती चुप्पी को
क्या तुमने कभी नही सुनी है मेरे सपनो की सुगबुगाहट

मैं जानता हूँ तुम मुझसे क्या चाहते हो
पर क्षमा चाहता हूँ मैं हे देव
मैं सुन नहीं पाता तुम्हारी याचना के आदेशों को
चुप्पी के शोर में
माफ़ करना
पर
तुम मेरे मसीहा नही हो