Friday, January 1, 2010

happy new year, my foot...अर्थात...मेरे पैर, नववर्ष मंगलमय हो....

हालाँकि मेरी जगह अगर यह बात नवीन ने कही होती तो शायद ज्यादा सूट करता.... खैर, जो भी हो असल बात तो यह है कि घडी के कांटे ने सिर्फ छह डिग्री का सफ़र तय कर बहुत सारी चीज़ें बदल दीं...तारीख, महिना, साल, दशक.... और सोच...
बचपन में हमें डराया जाता था कि साल के पहले दिन जो करोगे वही साल भर करना पड़ेगा... मैं बड़ा खुश होता था पहले दिन छुट्टी होती थी स्कूल की....यानि पुरे साल छुट्टी... पर बिल्ली के भाग से छींका फूट तो सकता है, पर प्लेट में सजा हुआ नहीं आ सकता... हमने सीखा कि बड़े लोग हमसे ज्यादा अच्छा झूठ बोलते हैं.....
फिर हम भी बड़े हो गए... ( और पड़ोस की लड़कियां भी).....हमने भी अच्छा झूठ बोलना सीखा...हर साल पहली जनवरी को खुद से कई झूठ बोले...इस साल ये करेंगे... वो करेंगे...और फिर कुछ नहीं...
आज कई साल बाद दोबारा वही झूठ बोले हैं....पर इस बार मन वो बचपन वाला है... सच करने हैं सारे झूठ...आपके साथ....साथ चलेंगे...

Monday, September 1, 2008

ज़िन्दगी zindagi

की-बोर्ड पर रुकी हुई अंगुलियाँ और विचारशून्य मन, लिखना तो चाहता था पर शब्द नहीं थे....मॉनिटर को ऑफ़ किया और निकल पड़ा सड़क पर......काफी दूर....तभी अचानक घड़ी का इशारा और रिक्शे से घर वापिस.....

रिक्शा धीरे धीरे चल रहा था बिना हड़बड़ी के, रिक्शे वाला कोई चालीस का रहा होगा "भइया ज़रा तेज़ी से" मैंने कहा ज़ोर तो बढ़ा पर रिक्शा उसी गति से बढ़ता रहा .....और घड़ी दुगनी तेज़ी से "यार ज़रा तेज़ चला लो""जी" पर नतीजा वही ढाक के तीन पात "यार..."झल्लाने का कोई फायदा नहीं था "कहाँ के हो भाई?" "बिहार" जवाब आया और थोड़ा संकोच भी।"बिहार में कहाँ से?" टाइम पास ही करना था।"जी, अररिया" "अरे वहां तो बाढ़ आई हुई है ना?"कल न्यूज़ में देखा था कुछ।रिक्शा अभी भी धीमे ही चल रहा था।"उधर तो हर साल ही बाढ़ आती है?"रिक्शा रुक गया, रिक्शेवाले ने अपने गमछे से पसीना पोछा और आंखें भी, फिर उसी गति से चल पड़ा।"कुछ बोलो यार?" एक तो इतने धीमे चलता रिक्शा ऊपर से ये चुप्पी मेरे लिए नाकाबिले बर्दाश्त थी।रिक्शेवाले ने पलट कर देखा,"क्या बोलें भइया?""अरे मैं तुम्हारे गाँव की बात कर रहा हूँ भाई""हमारा गाँव तो पूरा पानी हो गया अब कुछ कहाँ है""और घरवाले"मैंने पहली बार ध्यान से देखा रिक्शेवाला पसीना नहीं आंसू पोछ रहा था।"कुछ पता नहीं? मेरा दो बच्चा और घरवाली का कोई पता नहीं है साहब?""पर फ़ोन- वोन?" "परसों किए थे पर अब तो उ बूथ भी बह गया जहाँ फ़ोन करते थे?भतीजा फ़ोन किया था आज,कहा कोई ख़बर नहीं है किसी का" अब तो वो ज़ोर से रो रहा था."तो गाँव क्यूँ नहीं चले जाते?""क्या फायदा साहब,हम का कर लेंगे वहां जाके, उससे तो यहीं कुछ कमा लेंगे तो शायद आगे काम देगा."इसके आगे मैं सुन नहीं पाया, मेरे अन्दर कुछ बज रहा था नहीं मेरा सेलफोन बज रहा था.घर से .....पापा ने फोन पर बताया कि गाँव वाला घर डूब गया है और चाचा का पूरा परिवार किसी तरह हमारे घर आ पहुँचा है..........फ़ोन सुनने के बाद देखा तो रिक्शेवाला पेडील पर ज़ोर लगा रहा था, मैंने कहा "कोई बात नहीं भइया आराम से चलाओ कोई ज़ल्दी नहीं है." सेलफोन पर एक मेसेज आया था "जब भी मैं ज़िन्दगी से मांगता हूँ थोडी सी छत वो मुझसे मेरा पूरा आसमान चुरा ले जाती है"

Tuesday, May 20, 2008

आवाजों का मसीहा

मैं जानता हूँ तुम मुझसे क्या चाहते हो
मौन सहमति
पर
क्या तुम सुन नही पाते आवाजें यादों के उन चीथडो की
जो लटके रहतीं हैं मेरे दीवारों पर
किसी पुराने फटे कोट की तरह
क्या भूले हो तुम कभी अपने घर का रास्ता
आवाजों के जंगल में
क्या कभी किसी आवाज़ ने कैद किया है तुम्हारी परछाई को

मैं जानता हूँ तुम मुझसे क्या चाहते हो
पर
क्या तुम सुन नही पाते आवाजों के आर्तनाद को
चीखती रहती हैं जो मेरी आँखों में उस छटपटाती चुप्पी को
क्या तुमने कभी नही सुनी है मेरे सपनो की सुगबुगाहट

मैं जानता हूँ तुम मुझसे क्या चाहते हो
पर क्षमा चाहता हूँ मैं हे देव
मैं सुन नहीं पाता तुम्हारी याचना के आदेशों को
चुप्पी के शोर में
माफ़ करना
पर
तुम मेरे मसीहा नही हो